नई दिल्ली। साल 1998 में दर्ज हत्या के एक मामले में 2015 में पांच आरोपियों को बरी करने के निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस और उत्तर प्रदेश पुलिस की जांच पर सवाल उठाते हुए चेतावनी दी है।न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा की पीठ ने कहा कि दोनों जांच एजेंसियों ने 1998 में दर्ज की गई प्राथमिकी की जांच की और वर्ष 2015 में अदालत ने आरोपित व्यक्तियों को बरी कर दिया गया। पुलिस की जांच के कारण आरोपितों को लंबे मुकदमे की अग्निपरीक्षा का सामना करना पड़ा। अदालत ने कहा कि पांच व्यक्तियों के समय, ऊर्जा और प्रतिष्ठा की भरपाई पैसे या किसी अन्य रूप में नहीं की जा सकती।हालांकि, अदालत की राय में जांच में दोनों राज्यों की पुलिस द्वारा किये गए इस तरह के लापरवाह आचरण के लिए आगाह करना न्याय के हित में होगा। आरोपित व्यक्तियों के खिलाफ रिकार्ड पर कोई सबूत नहीं होने के बावजूद बरी करने के निचली अदालत के निर्णय खिलाफ अपील दायर करने पर भी अदालत ने अभियोजन पक्ष के प्रति नाराजगी व्यक्त की।पीठ ने कहा कि अदालत के सामने बड़ी संख्या में ऐसे मामले आए हैं जिनका कोई आधार नहीं है, फिर भी अपील दायर की जाती है। इससे न सिर्फ सार्वजनिक राजकोष को नुकसान होता है बल्कि अदालतों का बहुमूल्य सार्वजनिक समय और पैसा बर्बाद होता है। ऐसे में अभियोजन पक्ष को बरी करने के फैसले/आदेश के खिलाफ अपील दायर करने का निर्णय लेते समय सतर्क और निष्पक्ष रहने की चेतावनी दी जाती है। अदालत ने जून 1998 में गाजियाबाद के मसूरी में चरण सिंह, मुकेश और राजबीर सिंह की हत्या के मामले में अशोक (घोषित अपराधी), शोभा राम, योगेश, राकेश और रुकमेश को बरी कर दिया।